कविता: घुटन

घुटन यह एक ऐसी स्थिती होती है जिसे हम सब कभी न कभी किसी न किसी कारण से महसूस करतें हैं | उसी घुटन की अभिव्यक्ती,

वो घुटन
चुप रहने की
वो घुटन
अन्याय सहने की
वो घुटन
अंदर ही अंदर रोने की
चुभती है मुझे
साहस होते हुए भी
प्रतिकार न करने की
घुटन
वो घुटन
सहमे सहमे से रहने की
वो घुटन
अपनी चाहत को मारने की
वो घुटन
असहाय्यता की
वो घुटन
शांतिसे नफरत सहने की 
वो घुटन
पिंजरे की
जहाँ न तो मदद है
न भावनाएं
न प्यार है, न जीवन
वो घुटन
सजा चुपचाप जीने की
हाँ यहाँ सजा कटती नहीं
सजा का अंत नहीं
वो घुटन
चुपचाप सजा जीने की
दर्द का जिक्र तक  न करने की
वो घुटन
निष्पाप होते हुए भी
अपराधी बनकर रहने की
वो घुटन
मूर्खता कायरता सहने की
वो घुटन
चुपचाप दर्द सहने की
वो घुटन
वो भयानक जख्म
वो बहती जख्म
वह अन्याय सहते हुए भी
शांत रहने की वो घुटन
कोई आवाज नहीं
अन्याय का किसीको
एहसास तक नहीं
मूर्खों के बीच
स्वार्थियों के बीच
मदद की उम्मीद भी नहीं
साँसे रुक भी गयी घुटनसे
तो कोई परवाह नहीं किसे
जीवन मृत्यु बदल गया क्षण में
तो कोई आक्रोश भी नहीं
वो घुटन
जिसकी कोई आवाज ही नहीं
यह घुटन
लाचारी नहीं
यह घुटन
मजबूरी नहीं
कहीं न कहीं
एक अंतर्द्वंद्व

जो चीख जुबाँ से उठने नहीं देती!

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