आंदोलनों की दिशा और सार्थकता – चिंतन

पिछले करीब दो ढाई वर्षों से सोशल मिडिया के माध्यम से लोगों से बहुत चर्चा करने  का अवसर मिला पिछले दो-तीन वर्षों में सशक्त आन्दोलन भी हुए है परन्तु पिछले कुछ दिनों से एक विचार मन में आ रहा है, विविध आन्दोलनो  की दिशा कितनी सही है? क्योंकी ऐसा देखने में आया है, की  आंदोलनों में गहराई से समस्या के मूल में जाने का प्रयास नहीं होता, लोग एक ही समय पर परस्परविरुद्ध विचारों का स्वीकार करके के वह जीने का और औरों को सीखानेका प्रयास करतें हैं – ऐसे विचित्र प्रयास में आन्दोलन पराजित होता है – (नेता शायद जीत भी जातें होंगे) ऐसे ही कुछ मुद्दों की चर्चा इस आलेख में है


मेरा प्रयास इस आलेख में - क्या सही है, क्या गलत है, यह दिखाने का नहीं है, - परन्तु यह एक चिंतन है विविध आन्दोलनों की दिशा व्यापक और सार्थक क्यों नहीं हैं, हम सरकार के सामने अपनी अपेक्षाएं क्यों नहीं रखते - यह है


Text Image:आंदोलनों की दिशा और सार्थकता – चिंतन


हिंदी या हिन्दुस्तानी?: गाँधीजी ने जबसे हिन्दू मुस्लिम एकता के विफल प्रयास करने आरम्भ किए थे उसीका एक अंग हिन्दुस्तानी था हिंदी में उर्दू का मिश्रण करके हिंदुस्थानी नाम की नयी भाषा प्रचारित की गयी, हिन्दुस्तानी नामकी कोई भाषा वैसे तो है नहीं, लेकिन धर्मनिरपेक्षता सिद्ध करने के लिए ऐसा किया गया धर्म के नाम पे दो राष्ट्रों का निर्माण हुआ, हिन्दी राष्ट्रभाषा भी बनी परन्तु हिंदी की अपेक्षा उर्दू मिश्रित कथित हिन्दुस्तानी का अस्तित्व बढे इसी तरह के व्यवस्था रही आज हिंदी के नाम बन रहे चलचित्र जिनका हमारे जीवन पे सबसे अधिक प्रभाव होता है, वास्तव में उर्दू मिश्रित और अब तो अंगरेजी मिश्रित थोड़ी सी हिंदी दिखा रहें हैं

हिंदी प्रेमी जनता इस विषय में जनजागृती कर रहीं हैं यह आनंद की बात है परन्तु सरकारने ठोस उपाय किये बिना हिंदी पुनः सम्मान से भारतीयों के जीवन में नहीं आ सकती कमाल पाशा का उदाहरण इस विषय में प्रेरणास्पद है कुछ महीने पहले मैंने हिंदी का अभ्यास और बढाने के लिए एक शब्दकोष लिया था परन्तु उसमें इतने उर्दू शब्द है की आजकल मुझे वह शब्दकोष उर्दू समझने के काम आ रहा है शब्दकोष कर्ता का काम अतिशय उत्तम है क्योंकी उन्होंने ऐसे शब्दों का अर्थ दिया है, जो हम दैनंदिन जीवन – बोलचाल एवं लिखने में प्रयोग में लातें हैं

जब मैं यह चिंतन लिख रही थी, तभी हिन्दी भाषा का विषय पुनः चर्चा में आया परन्तु उसमे हिन्दी का अर्थ सरकार के अनुसार क्या है, इस बात की ओर अधिक ध्यान नहीं दिया गया इस विषय में सरकारने क्या करना चाहिए यह हिंदी प्रेमी जनता को बताना हो, तो उनके पास इस विषय में क्या निश्चित विचार है? आन्दोलन की दिशा क्या है और ध्येय क्या है – यह मंथनीय बिंदु है   

२. स्वदेशी: इसी बिंदु से समानता रखने वाले और भी कुछ मुद्दे हैं, आइये उनके बारें में भी कुछ चर्चा करते हैं स्वदेशी ऐसाही एक मुद्दा है। स्वदेशी प्रेमी कार्यकर्त्ता स्वदेशी का प्रचार प्रसार करते हैं और विदेशी का बहिष्कार करने का आवाहन करते हैं यह बहुत ही अच्छा प्रयास है| मेरा भी जीवन में यही प्रयास रहता है की जहाँ तक हो सके आर्थिक लाभ अपने देश के व्यावसायिकों को हो परन्तु इसमें मर्यादा और समस्याएँ हैं हमने निजीकरण का स्वीकार किया है विदेशी पूंजी निवेश को अधिक से अधिक आकर्षित करने से राष्ट्र का विकास होगा यह जनता और राजनेता दोनों ने स्वीकार किया हुआ तत्त्व है तो फिर हम दोंनों परस्पर विरुद्ध विचारधाराएँ एकसाथ एक ही समय पे कैसे जी सकते हैं बाजार में विदेशी वस्तुओं हो, छोटे छोटे स्वदेशी व्यापार समाप्त हो रहे हो, तो केवल स्वदेशी का प्रचार करना और ‘विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करो’, यह कहना यही तक स्वदेशी प्रेमी आन्दोलन सीमित रखे तो दोगलेपन का आरोप भी इनपे लग सकता है

निजीकरण से आज के समय में शायद ही कोई राष्ट्र अछूता हो, ऐसे में अगर कोई यह ठान भी ले वैश्वीकरणका हिस्सा न बने तो भी इसके लिए साहस और आर्थिक मामलों में बुद्धिमत्ता दोनोंही अतुलनीय होने चाहिए  चीन और पाकिस्तान के सामान का बहिष्कार भी इसी लिए व्यर्थ होता है, क्योंकी  इनकी पूंजी निवेश आकर्षित करने की नीती सरकारद्वारा बनाई जाती है

३. पश्चिमी सभ्यता और महिलाएँ:   इसी विषय का उपमुद्दा है, पश्चिमी सभ्यता के वस्त्र – आधुनिक पहनावे के लिए स्त्रियों को विशेषत: दोषी ठहराया जाता  है पहनावे सबके बदले है, स्त्री पुरुष और बालक! निजीकरण – वैश्वीकरण से पश्चिमी दूरदर्शन की वाहिनियाँ भारत में आयी अंग्रेजी के साथ साथ हिंदी और प्रांतीय भाषाओँ में भी रहन सहन, भोगवाद, इन सबका प्रभाव बढ़ता गया एक समय था कि  लोग मद्यपान को पाप समझ ते थे, आज मध्यमवर्ग के घरों में भी बात बात पर मद्यपान टीवी में दिखाया जाता है, और धीरे धीरे वह प्रचलन वास्तव में समाज में फैलने लगा फैशन की चकाचौन्द  केवल फ़िल्मी सितारों के लिए होती है ऐसा पहले समझा जाता था, परन्तु डिजायनर कपडे, कलेक्शन आज आम जनता तक पहुचाएं जा रहे है, भारत में मध्यवर्ग का मार्केट बहुत बड़ा है, उन्हें ध्यान में रखके फैशन उद्योग आजकल कपडे बना रहा है समय के साथ बदलने से हमारा अस्तित्व नहीं मिटता यह मेरा मानना है, लेकिन बदलाव के लिए केवल स्त्रियों को दोषी मानना भी दोगलापन ही तो है


ऐसे बहुत से मुद्दे हमारे आसपास हैं मैंने केवल कुछ मुद्दों की ही चर्चा की है

ऐसे मुद्दों पे चिंतित लोग आन्दोलन की दिशा कहाँ केन्द्रित करें यह प्रश्न उठता है विविध  विषयों पर आन्दोलनकारी कार्यकर्ताओं को ध्येय निश्चित करने की आवश्यकता है और उस ध्येय को पाने के लिए एक – दुसरे को दोषी ठहराए बिना एक  निश्चित राह पर चलना आवश्यक है आज के समय में सरकार, मंत्री, सांसद, विधायक सब फेसबुक – ट्विटर पे देखे जातें हैं क्या आन्दोलनकर्ता हर समस्या के लिए जनता को दोषी ठहराने  के बजाय अपनी अपेक्षाएं सरकार के सामने नहीं रख सकती? अब यह पहले से बहुत आसान भी तो है जनजागृती और जनआन्दोलन तब बहुत बढ़ता है, जब सरकार जनता की सुनती ही नहीं

पर जब हमें विश्वास है की हमने चुने हुए नेता अच्छे हैं, तब हमारेही चुने हुए नेताओं के सामने अपनी अपेक्षाएं और समस्याएँ रखनी भी चाहिए


क्या हम सकारात्मक कार्य भूलते जा रहें हैं ?

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